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विश्व की ३६ भाषाओं के ज्ञाता और यात्रा-साहित्य के जनक थे महापंडित राहुल सांकृत्यान,
विश्व की ३६ भाषाओं के ज्ञाता और यात्रा-साहित्य के जनक थे महापंडित राहुल सांकृत्यान,
विदुषी कवयित्री थीं गिरिजा वर्णवाल, जयंती पर साहित्य सम्मेलन में आयोजित हुआ कवि-सम्मेलन ।
by
Arun Pandey,
April 10, 2024
in
बिहार
पटना, १० अप्रैल । विश्व की ३६ भाषाओं के ज्ञाता और प्रयोगता थे,महापंडित राहुल सांकृत्यान। हिन्दी का संसार उन्हें यात्रा-साहित्य के पितामह के रूप में मान्यता देता है। बौद्ध-साहित्य से संबद्ध अनेकों दुर्लभ ग्रंथों की पांडुलिपियाँ, तिब्बत से खच्चरों पर लाद कर वे लेकर आए और भारत को दी। वो अमूल्य धरोहर आज भी पटना के संग्रहालय में उपलब्ध है।
यह बातें बुधवार को, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में आयोजित जयंती-समारोह और कवि-सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन-अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, उनकी विद्वता और मेधा अद्भुत थी, जिनसे प्रभावित होकर काशी के पंडितों ने उन्हेंमहापंडित की उपाधि दी। वे बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के भी अध्यक्ष रहे, जिसपर सम्मेलन को सदा गौरव रहेगा। उनका बहु-चर्चित उपन्यास बोल्गा से गंगा उनकी ऐसी अमर-कृति है, जिसमें उन्होंने कथा-रूम में, किस प्रकार मानव-सभ्यता विकसित हुई , उसके क्रमिक विकास को, संसार के सामने अत्यंत सरलता से रखा है। यह एक मात्र पुस्तक पढ़कर एक सामान्य व्यक्ति भी, आदिम-काल से आधुनिक-संसार तक, मानव सभ्यता कैसे आगे बढ़ी, जान सकता है। वे निरंतर चलते और लिखते रहे। जब उनके पैर थमते, तब लेखनी चलने लगती। वे अद्वितीय यायावर थे।
डा सुलभ ने कहा कि राहुल जी एक सदा-अतृप्त जिज्ञासु थे। जगत और जगदीश को जानने की उनकी अकुलाहट बहुत भारी थी। वे संसार के सभी निगूढ़ रहस्यों को शीघ्र जान लेना चाहते थे। यही अकुंठ जिज्ञासा उन्हें जीवन-पर्यन्त वेचैन और विचलित किए रही, जिससे वे कभी, कहीं भी स्थिर नहीं रह सके। दौड़ते-भागते रहे। लेकिन इसी भागमभाग ने उन्हें संसार का सबसे बड़ा यायावर साहित्यकार, चिंतक और महापंडित बना दिया। जब पर्यटन और देशाटन का कोई भी सुलभ साधन नहीं था, उस काल में भी उन्होंने संपूर्ण भारत वर्ष की ही नहीं, तिब्बत, चीन, श्रीलंका और रूस तक की लम्बी यात्राएँ की। जहाँ गए वहाँ की भाषा सीखी, इतिहास और साहित्य का गहन अध्ययन किया और संसार के सभी धर्मों का सार-तत्त्व लेकर अपने विपुल साहित्य के माध्यम से संसार को लाभान्वित किया।
स्मृति-शेष कवयित्री गिरिजा वर्णवाल को स्मरण करते हुए उन्होंने कहा कि लेखन-प्रतिभा और काव्य-लालित्य से संपन्न विदुषी थी गिरिजा जी। उन्होंने अपनी समस्त साहित्यिक-प्रतिभा को अपने पति और हिन्दी-सेवी नृपेंद्रनाथ गुप्त को अर्पित कर दिया था। भारतीय नारी की जीवंत मूर्ति थीं श्रीमती वर्णवाल।
अतिथियों का स्वागत करते हुए सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने कहा कि, राहुल जी निरंतर कँटीले रास्तों पर चलते रहे। वे गहरे अध्येता थे। संसार में प्रचलित सभी प्रमुख धर्मों के साहित्य का गहरा अध्ययन किया था। उनका मत था कि, संसार को मानव-धर्म का पालन करना चाहिए।
सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा मधु वर्मा, विदुषी गिरिजा वर्णवाल के कनिष्ठ पुत्र विवेक कुमार गुप्त, डा पुष्पा जमुआर, ई अवध किशोर सिंह, कुमार अनुपम तथा डा पूनम देवा आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
इस अवसर पर आयोजित कवि-सम्मेलन का आरंभ चंदा मिश्र ने वाणी-वंदना से किया। वरिष्ठ कवयित्री डा पूनम आनन्द, विभा रानी श्रीवास्तव, डा सीमा यादव, सुनीता रंजन, डा शालिनी पाण्डेय, मधुरानी लाल, डा अर्चना त्रिपाठी, मीरा श्रीवास्तव, चितरंजन भारती, डा मीना कुमारी परिहार, डा ऋचा वर्मा, अनुपमा सिंह, अरविंद अकेला, नीता सहाय, सुजाता मिश्र, डा विद्या चौधरी, सरिता कुमारी, श्वेता बौबी, रौली कुमारी, उत्तरा सिंह, अरविन्द अकेला, जय प्रकाश पुजारी, ज्योति मिश्र, सत्य प्रकाश, आदि कवियों और कवयित्रियों ने काव्यरसांजलि अर्पित की । मंच का संचालन कवि ब्रह्मानन्द पाण्डेय ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन प्रबंधमंत्री कृष्णरंजन सिंह ने किया।
प्रोफ़ेसर राम ईश्वर पण्डित, डा प्रेम प्रकाश, भास्कर त्रिपाठी, विजय कुमार, विनय चंद्र, आयुष्मान, कुमारी क्रांति, जयश्री, दिगम्बर कुमार,राजेश कुमार समेत बड़ी संख्या में, प्रबुद्धजन उपस्थित थे।
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